शीर्ष अदालत ने राजस्थान हाईकोर्ट के 2013 के फैसले को खारिज कर दिया जिसमें प्रतिवादी चतरा को दोषसिद्धि और सात साल की जेल की सजा को पलट दिया था। पीठ ने पाया कि पीड़िता मामले में मुकरी नहीं है। पीठ ने कहा कि उसके अंदर चुपचाप आघात समाया हुआ है। उसके छोटे कंधों पर पूरे अभियोजन पक्ष का भार डालना अनुचित होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यौन उत्पीड़न की शिकार बच्चियों की पीड़ा को आंसुओं से समझना होगा। यौन उत्पीड़न की शिकार बच्ची आंसू बहाने के अलावा कोई बयान नहीं दे पाई तो यह आरोपी को राहत देने का आधार नहीं हो सकता है, जबकि उसके दोषी होने के अन्य सबूत, मेडिकल और परिस्थितिजन्य साक्ष्य मौजूद हों। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा कोई सख्त नियम नहीं है कि पीड़िता के बयान के अभाव में दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती। बच्ची के छोटे कंधों पर पूरे अभियोजन पक्ष का भार डालना अनुचित होगा। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने 3 मार्च, 1986 को दर्ज कक्षा एक की छात्रा के यौन उत्पीड़न से संबंधित मामले में प्रतिवादी चतरा की दोषसिद्धि को पलटने के खिलाफ राजस्थान सरकार की अपील को स्वीकार कर लिया।
फैसले में पीठ ने की अहम टिप्पणी
अपने फैसले में पीठ ने कहा कि यह सच है कि बाल गवाह (पीड़िता) ने अपने खिलाफ अपराध के बारे में कुछ भी बयान नहीं दिया है। घटना के बारे में पूछे जाने पर, ट्रायल जज ने दर्ज किया कि पीड़िता चुप थी और आगे पूछे जाने पर केवल चुपचाप आंसू बहाए और कुछ नहीं। इसलिए अपराध के बारे में गवाही से कुछ भी पता नहीं लगाया जा सका। पीठ ने कहा कि “हमारे विचार से इसे प्रतिवादी के पक्ष में एक कारक के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। उसके आंसुओं को उनके महत्व के अनुसार समझना होगा। यह चुप्पी प्रतिवादी के लाभ के लिए नहीं हो सकती। यहां चुप्पी एक बच्ची की है। इसे पूरी तरह से जागरूक वयस्क पीड़िता की चुप्पी के बराबर नहीं माना जा सकता है।
बच्ची के अंदर आघात समाया हुआ है
शीर्ष अदालत ने राजस्थान हाईकोर्ट के 2013 के फैसले को खारिज कर दिया जिसमें प्रतिवादी चतरा को दोषसिद्धि और सात साल की जेल की सजा को पलट दिया था। पीठ ने पाया कि पीड़िता मामले में मुकरी नहीं है। पीठ ने कहा कि उसके अंदर चुपचाप आघात समाया हुआ है। उसके छोटे कंधों पर पूरे अभियोजन पक्ष का भार डालना अनुचित होगा।
साथ ही पीठ ने कहा कि लगभग सभी अन्य मामलों में, दुष्कर्म पीड़िता की गवाही मौजूद होती है और यह किसी आरोपी की सजा का एक अनिवार्य हिस्सा होती है लेकिन साथ ही ऐसा कोई कठोर नियम नहीं है कि इस तरह के बयान के अभाव में दोषसिद्धि नहीं हो सकती, खासकर तब जब अन्य साक्ष्य, चिकित्सा और परिस्थितिजन्य, ऐसे निष्कर्ष की ओर इशारा करते हुए उपलब्ध हों। दुख की बात, पीड़िता को भयावह अध्याय को खत्म करने में चार दशक लगे पीठ ने कहा कि यह बहुत दुख की बात है कि नाबालिग लड़की और उसके परिवार को अपने जीवन के इस भयावह अध्याय को बंद करने के इंतजार में लगभग चार दशक गुजारने पड़े। पीठ ने कहा कि करीब 40 साल पहले 3 मार्च 1986 को एक ऐसी घटना हुई, जिसने नाबालिग लड़की की जिंदगी की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।
ये है मामला
मामले के मुताबिक, बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न किया गया था। उसे बेहोशी की हालत और गुप्तांगों से खून बहता हुआ पाया गया था। गुलाब चंद नामक व्यक्ति ने मार्च 1986 को संबंधित पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। 19 नवंबर 1987 को टोंक की एक अदालत ने गुलाब चंद के बयान और बच्ची की मेडिकल जांच करने वाले डॉक्टर के बयान के आधार पर आरोपी को दोषी करार देते हुए सात साल कैद की सजा सुनाई। हाईकोर्ट को आपराधिक अपील का निपटारा होने में 26 साल लग गए।
हाईकोर्ट के फैसले से हम आश्चर्यचकित
पीठ ने कहा कि छह पृष्ठों के निर्णय के माध्यम से हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा दिए गए दोष के निष्कर्षों को पलट दिया और प्रतिवादी को बरी कर दिया गया। यह कहना पर्याप्त है कि जिस तरह से हाईकोर्ट ने इस मामले को निपटाया, उससे हम आश्चर्यचकित हैं। पीठ ने कहा कि प्रथम अपीलीय अदालत के रूप में, हाईकोर्ट से अपेक्षा की जाती है कि वह निचली अदालत के निष्कर्षों की पुष्टि या उसमें बाधा डालते हुए अपने समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करे।