विश्व रंगमंच दिवस पर एक कार्यक्रम के दौरान दो लघु नाटक ‘हम टीटी हूं’ और ‘फोन पे’ का मंचन किया गया। इन नाटकों के जरिए जीवन में सामाजिक और पारिवारिक महत्व को दर्शाया गया।
रंगमंच की सामाजिक जीवन में महत्ता क्या है? क्या एक रंगकर्मी को दूसरे पेशेवर लोगों की तरह की स्वीकृति मिल सकी है? और, यदि नहीं तो इसके लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं? विश्व रंगमंच दिवस पर यहां मुंबई के जीत स्टूडियो में इन सवालों पर हुई एक परिचर्चा का लब्बोलुआब यही निकला कि रंगमंच आत्म विकास की जीवन में पहली सीढ़ी हो सकती है और अभिनय को करियर बनाना हो या न बनाना हो, बच्चों को शुरू से यदि रंगमंच से जोड़ा जाए तो यह उनके व्यक्तित्व के विकास में करिश्माई योगदान कर सकता है।
बीते पांच दशक से अपना जीवन पूरी तरह रंगमंच को समर्पित कर चुके लेखक, निर्देशक और अभिनेता ओम कटारे के निर्देशन में हुए इस आयोजन की शुरुआत उनके थियेटर ग्रुप यात्री की वरिष्ठ अभिनेत्री परोमिता चटर्जी से हुई। कार्यक्रम के प्रारंभ में ही वह फोन पर बात करती दिखाई दीं तो स्वयंत ओम कटारे ने आगे बढ़कर उन्हें टोका। यूं लगा कि कार्यक्रम में व्यवधान पर वह चिंतित है, फिर पता चला कि ये तो एक लघु हास्य प्रस्तुति है, जिसमें इस बात का दर्द बखूबी उकेरा गया कि रंगकर्मियों के पेशे को आज तक सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल सकी है।
ओम कटारे कहते हैं, “बड़े शहरों में तो फिर भी अब लोग टिकट लेकर नाटक देखने आने लगे हैं, लेकिन छोटे शहरों में अब भी इसे मुफ्त का आयोजन माना जाता है। लोग वहां फ्री का नाटक देखने तो आ सकते हैं लेकिन टिकट लगाकर रंगमंच का आयोजन करना अब भी देश के तमाम शहरों की चुनौती है।” टीवी अभिनेता नरेंद्र गुप्ता ने इस बात पर उत्साह जाहिर किया कि रंगमंच अब बड़े शहरों की हदों से निकलकर छोटे शहरों तक पहुंच रहा है और अलवर जैसे शहरों में कई कई दिनों तक चलने वाले नाट्य उत्सव न सिर्फ नए दर्शक बना रहे हैं, बल्कि एक विशाल आबादी को रंगकर्म की महत्ता के बारे में भी समझा रहे हैं।
फिल्म और टीवी पर बड़ा नाम बन चुके अभिनेता अखिलेंद्र मिश्र ने इस मौके पर अपनी नई पुस्तक के बारे में चर्चा की और ये भी साझा किया कि छोटे शहरों में नाटकों का रसास्वादन करने आने वालों की धारणा रंगमंच के प्रति बदल रही है। अपना निजी अनुभव साझा करते हुए उन्होंने खुलासा किया कि जब उन्होंने अपनी मां के सामने अभिनेता बनने की ख्वाहिश जाहिर की थी तो कैसे उनका दिल टूट गया था। वह ये भी बताने से नहीं चूके कि संघर्ष के शुरुआती दिनों में उन्हें अपने दोस्तों के ही तीखे सवालों का इसलिए सामना करना पड़ता था क्योंकि वे सब किसी न किसी अच्छी नौकरी में व्यस्त हो चुके थे, और अखिलेंद्र तब तक अभिनय में चमकने के लिए खुद को घिस ही रहे थे।
इस मौके पर छोटे शहरों से आने वाले कलाकारों पर शुरू की गई वरिष्ठ फिल्म समीक्षक व पत्रकार पंकज शुक्ल की सीरीज ‘अपना अड्डा’का भी जिक्र हुआ। ‘अपना अड्डा’ सीरीज के तहत अमर उजाला समाचार पत्र और अमर उजाला डिजिटल में जिन कलाकारों की संघर्ष गाथा प्रकाशित हो चुकी है, उनमें से कई कलाकारों ने विश्व रंगमंच दिवस पर यात्री की तरफ से आयोजित इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया। गायिका दीप्ति चतुर्वेदी, लेखक-निर्देशक विराग धूलिया, अभिनेता अनुज मिश्र, अभिनेत्री अदिति गुप्ता आदि ने इस आयोजन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
इस आयोजन के दौरान यात्रा के कलाकारों ने दो लघु नाटक भी प्रस्तुत किए। ओम कटारे द्वारा लिखित व निर्देशित इन नाटकों में आज के समय को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, उसे सबने मुक्त कंठ से सराहा। अपना जीवन पूरी तरह अपने कर्म को समर्पित कर घर-परिवार को भूल जाने वाले लोगों की हालत रिटायरमेंट के बाद क्या होती है, उस पर एक करारा व्यंग्य रहा नाटक ‘हम टीटी हूं’। काजल सोनकर और हितेश भाटिया अभिनीत इस नाटक के तुरंत बाद साहिल रवि, पूजा जांगीर, हितेश भाटिया, अनूप बालियान और विक्रम अभिनीत नाटक ‘फोन पे’ का मंचन हुआ। मोबाइल के सामाजिक और पारिवारिक जीवन को लगातार दूषित करते जाने का कैसा नुकसान हो रहा है, इस पर इस नाटक के जरिये ओम कटारे ने तगड़ा हस्तक्षेप किया है। दोनों नाटकों को कार्यक्रम में मौजूद रंगकर्मियों व दर्शकों ने मुक्त कंठ से सराहा।